Tuesday 3 July, 2007

पुरब और पश्चिम का अनुठा मेल - बेलाबहार


पंडित बाबुलालजी का रियाझ के साथ साथ अध्ययन, चिंतन और मनन का दौर भी साथ साथ चल रहा था. उनके मन के किसी कोने मे अनायास ही सारंगी और वायलिन के समन्वय का ख्याल उपजने लगा । वे वायलिन की ध्वनी से सन्तुष्ट नही थे । लेकीन उन्हे वायलिन मे सारंगी की अपेक्षा कुछ गुण जरुर नजर आये । वायलिन को पकडना अधिक आरामदायक है, साथ ही वायलिन विश्व मे सोलो वाद्य के रुप मे स्विकारी जा चुकी है । पं. बाबुलाल ने कल्पना की ऐसे वायलिन के निर्माण की जिसमे भारतीयता का पुट भी शामिल हो । पूरब और पश्चीम के इस बेजो़ड मिलन के किये उन्होने अथक प्रयास आरम्भ किया । पिता की सहयाता से २०० साल पुरानी लकडी पर काम शुरु किया, भाग्य ने साथ दिया और बाबुलालजी ने एक नए साज का निर्माण प्रथम प्रयोग मे कर दिखाया । सन १९८४ मे इस साज को नया नाम दिया गया " बेलाबहार" । उन्होने इस साज को स्वयं अपने हाथोंसे बनाया है । वायलिन मे अनेक परिष्कार करके एक अनोखी साज का निर्माण किया है ।

लंबाई वायलिन से अधिक, प्लायवुड की जगह २०० साल पुरानी लकडी से बना ढांचा, अधिक चौडा फिंगर बोर्ड, सरोद जैसा पेट का हिस्सा, चार की जगह पांच तार, ताकि मंद्र सप्तक की गुंजाइश बढे, तरब के लिये २२ तार, ब्रिज चम़डे की पट्टी से कसा हुआ, ऊपर की ओर फाइन टुयनिंग के लिये व्यवस्था, और सिर्फ पंद्रह सेकंड मे साज मिल जाना - ये विशेषताएं "बेलाबहार" मे है । इस साज मे सूक्ष्म मिलवट (फाइन टुनिंंग ) के किये एडजेस्टर लगाए गये है , जो तरब के किसी भी वाद्य मे आजतक इस्तेमाल नही हुए है ।

वायोलिन, सारंगी और इसराज ( दिलरुबा ) का सुमेल है । इस साज मे और ध्वन्यात्मक गुण भी इन तीनो से अलग । जो तुकडे या हरकते सारंगी मे मुश्किल प़डती है , वे बेलाबहार मे आसान हो जाती है । कुछ मिलाकार यह साज संगीत और भारतीय शैली क लिये सर्वथा उपयुक्‍त है।

यह पं. बाबुलाल गंधर्वजी के निरंतन प्रयत्नों का ही कमाल है कि दिखने मे वायलिन जैसी और बजने मे प्राचीन सारंगी जैसी धुन वाली "बेलाबहार" को अब विश्वविख्यात ख्याती मिलने लगी है ।

पं. बाबुलाल गंधर्वजी की तमन्ना है की उनकी खोज "बेलाबहार" को लोग सुने, समझे, सीखे और पूरे विश्व मे इसे "भारतीय संगीत वाद्य" के रुप मे सही पहचान व प्रतिष्ठा मिले ।

सांची शर्मा लिखित, विकास चक्र , जनवारी २००६, से साभार.